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तवायफ कहीं की

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“मेरे दामन में दाग़ देखने वाले कभी मेरा दर्द नहीं देखते” एक तवायफ़ कभी दाग़ से रुसवा नहीं होती है, जितने ज़्यादा दाग़ उतना ही क़ाबिल-ए-एहतराम।…क्यों? चौक गए ? ख़ैर इन बातों में क्या रखा है, आइए आज मैं आपको एक कहानी सुनाता हूं_ कहानी एक तवायफ़ की, कहानी ईशतर आपा की

24 सितम्बर 1930 को गुजरात के सूरत शहर में एक अफग़ान डॉक्टर के घर जन्म हुआ ईशतर आपा का। यह वही दौर था जब गांधी ने देशभर में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ एक मोर्चा सा खोल दिया था।


ईशतर एक अरबी नाम है जिसके माने शायद मललिक़ा-ए-इश्क़ होता है।

ईशतर देखने में बिल्कुल परियों जैसी हसीन थी। नाज़ो मे पली ईशतर बेहद ही मासूम सी कोमल सी प्यारी सी थी। 50 नौकर इसके आगे-पीछे करते_ बड़ी-बड़ी गाड़ियों में घुमा करती थी। मुआशरे में आला दर्जा रखने वाले ख़ानदान से ताल्लुक था ईशतर का, लेकिन इशतर को कभी यह सब पसंद नहीं था, वह शामिल तो हर महफ़िल में होती थी पर उसका दिल शायद कहीं और ही लगा रहता, कभी खिड़की के बाहर सड़क किनारे खेलते बच्चों को देख कर ही खुश हो जाया करती, तो कभी बारिश में भींगती अपनी हमउम्र लड़कियों को देख मन ही मन मुस्कुराती थी ईशतर। इक़लौती जो थी ईशतर। उसकी पैदाइश के सिर्फ 2 साल बाद ही उसकी अम्मी का इंतक़ाल हो गया, वालिद डॉक्टर थें सो ज़ाहिर है सारा वक्त अस्पताल के झमेले में फ़ंसे रहते और ऐसे में ईशतर की तरफ़ से ज़रा से लापरवाह से हो गये। ज़ाहिर है इक़लौती होने की वजह से घर में दूसरे बच्चे बच्चों का साथ नहीं था जिसकी वजह से ईशतर अक्सर खुद को अकेला पाती और इस तरह ईशतर का बचपन उंची-लंबी दीवारों के बीच कहीं खो सा गया_दब सा गया।

सन् 1945

ईशतर के वालिद को पड़ने वाले दिल के दौरे ने उनकी जान ले ली और ऐसे में एक बार फ़िर से ईशतर इस दुनिया में बिल्कुल अकेली रह गई। साल भर के अंदर ही उसकी सारी दौलत म्युनिसिपल कार्पोरेशन वालो ने धोखे से सरकारी ज़मीन बता कर हड़प ली।

अस्पताल में वालिद के साथ काम करने वालों को ईशतर पर शायद रहम सा आ गया, उन लोगों ने किसी सूरत में ईशतर को उसकी नानी के घर भिजवाने का इंतजाम किया। कोठियों की मलिका ईशतर अब अपनी नानी के साथ बंबई के एक बेहद आम सी खोली में रहने को मजबूर थी।

ईशतर के लिए पूरा साल काफी तक़लीफ-दह साबित हो रहा था पर आने वाले तूफान का तो उसे अंदाज़ा भी ना था। ईशतर की नानी एक तवायफ़ के कोठे पर काम किया करती थी जिससे किसी भी तरह बस गुज़र-बसर हो रही थी। नानी कभी नहीं चाहती थी ईशतर का उस तवायफ़-खाने में कभी जाना भी हो पर उनके पास अब इसके अलावा कोई चारा नहीं था, नानी ने रज्जो बाई को बोलकर ईशतर को भी वहां काम पर रखवा दिया।लेकिन 16 साल की ईशतर जो कि बेहद रईस घर की नाज़ों में पली कोमल सी बेहद मासूम सी लड़की थी उसे तो कोई काम ही ना आता था इसके कारण अक्सर रज्जो बाई से डांट खाया करती थी। और फ़िर यूंही दिन बीतने लगे।


मल्लिका

एक दिन ईशतर ने कोठे की लड़कियों को सजते संवरते देखा और हर लड़की की तरह उसका भी मन कर गया खुद को शोख़ रंग में रंगने का, उन्हीं की तरह सजने का, संवरने का । ईशतर कोठे की सबसे खूबसूरत तवायफ़ मल्लिका के पास गई, अंदर ना जाकर दरवाजे से ही उसे घूरने लगी – ” क्या रे ईशतर, क्या देख रही है ? “ मल्लिका ने लिपस्टिक लगाते हुए उससे पूछा ” कुछ नहीं “ और इशतर मुस्कुराने लगी “इधर आ” ईशतर मल्लिका के पास जाकर खड़ी हो गई मल्लिका ने उसे अपनी गोद में बिठा लिया, और उसे लिपस्टिक लगाते हुए बोली ” माशाअल्लाह, तू तो बिल्कुल अपने नाम की तरह है रे ईशतर ने जब अपने आपको आईने में देखा तो शर्म से लाल हो गई, ईशतर का मासूम ज़हन अचानक से बड़ा हो गया मानो…उसने लिपस्टिक उठाई और बोली ” आपा यह मैं रख लूं ? “ मल्लिका ने थोड़ी देर उसकी तरफ देखा और बोली ” रख ले मेरी बच्ची, खुदा तुझे नज़र-ए-बद से बचाए “ पर रज्जो बाई ने ईशतर को जैसे ही लिपस्टिक में देखा वह हैरान हो गई, रज्जो बाई ने ईशतर का जब ये रूप देखा तो मानो उसे लगा कि कोठे की पुरानी खोई हुई सी चमक वापस मिल गई हो। नानी ने लाख हाथ-पैर जोड़े कि ईशतर को तवायफ़ न बनाया जाए मगर ईशतर का रूप रज्जो बाई की आंखों पर चढ़ चुका था। अपनी चालाकियों से रज्जो बाई ने ईशतर को तवायफ़ बनने पर राजी भी कर लिया। वोह राज़ी भी कैसे ना होती, ईशतर अब वह महलों की रानी नहीं बल्कि रज्जो बाई के टुकड़ों पर पलने वाली एक आम सी लड़की थी, ईशतर के पास हां कहने के अलावा चारा ही क्या था ?


और अब चमड़े के बाज़ार में ईशतर के नाम का सिक्का उछाला जा चुका था।

मल्लिका यह सुनते ही ईशतर के पास दौड़ी चली आई। ” यह में क्या सुन रही हूं मेरी बच्ची तू पागल तो ना हो गई? तुझे पता भी है किस दलदल में अपने क़दम जमाने जा रही है तू? यह दुनिया तेरे लायक़ नहीं। यहां के चील-क़ववे धीरे-धीरे तेरे जिस्म से ग़ोश्त का आखिरी टुकड़ा भी नोच लेंगे मगर तुझे उफ़्फ़ तक करने की इजाज़त न होगी। तेरे जिस्म पर रेशमी कपड़े तो होंगे मगर तेरी रूह नंगी होगी, तेरी रूह को साया देने वाला, तेरी रूह को चादर उढ़ाने वाला कोई ना होगा कोई ना। तू बेमौत मारी जाएगी_मत कर मेरी बच्ची, ख़ुदक़शी न कर….”

” मल्लिका आपा ” मैं नहीं जानती मैं क्या कर रही हूं सही कर रही हूं या ग़लत कर रही हूं मगर आप जिन आदमखोरों की बात कर रही है वह आए थे मेरे वालिद की वफ़ात के बाद सब कुछ नोच ख़सोट कर ले गए। ये चील क़व्वे, ये क्या ही मेरे कपड़े नोचेंगे, इसके लिए तो तन का ढ़का होना भी ज़रूरी है, जिस्म पर कपड़े का होना ज़रूरी है, कपड़े नोचने की खा़तिर? गो़श्त नोचने का दर्द महसूस नहीं होगा यह मैं जानती हूं कि इस दर्द को महसूस करने के लिए ज़िंदा होना भी तो जरूरी है, नहीं ? और मेरी रूह वह तो बीते बरस अम्मी अब्बू के साथ ही जाने कहीं खो गई। आपा तुम फ़िक्र न करना, ईशतर को मारने के लिए ईशतर होना पड़ता है।


उस रात भले ही वोह मासूम सी लड़की तवायफ़ बन गई मगर फ़िर किसी मासूम लड़की को तवायफ़ न बनने दिया।

ईशतर आपा आज की तारीख़ में कई इदारें चलाती हैं। जिनमें 4 स्कूल, 2 अस्पताल और एक कपड़े की सिलायी की फैक्ट्री।

लोगों ने जिसे जाहिल कहा, जिसकी तालीम पर सवाल उठाए, आज वह तक़रीबन 2000 बच्चों के तालीम का ख़र्च उठाती है। जिसका जिस्म ज़ख्मों से भर दिया गया, वह ईशरत लोगों के ज़ख्मों का इलाज हो सकें इसके लिए आला तरीन डाक्टरस को अपने अस्पताल में काम पर रखती है। जिन्होंने उसके जिस्म से एक-एक कपड़े नोच डाले, वह उनके बच्चों को कपड़े पहनाती है।

ईशतर को एक मासूम नौख़ेज़ लड़की से तवायफ़ जिस मुआशरे ने बनाया अब वही मुआशरा (समाज) आज ईशतर आपा की इज्ज़त में बिछा-बिछा जाता है।

ईशतर कहतीं है…

मेरे दामन में दाग़ देखने वाले कभी मेरा दर्द नहीं देखते जो देखते मेरा दर्द तो ईशतर को ना देखते।
Translated by : Rahat Zabin Originally written by : Rahat Vez

 
 
 

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